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छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

“यह तो कोई बात ही न हुई।" झुंझलाकर हाथ नचाते हुए रस्तोगी ने गुप्ताजी का तीव्र प्रतिवाद किया; बोला, “साहब, नाक को चाहे सीधे पकड़ो या गर्दन के पीछे से हाथ लाकर, बात एक ही है। मान लीजिए कि प्रिंसिपल का एडमिनिस्ट्रेशन बहुत अच्छा होता तो ? तो क्या उससे विद्यार्थियों को 'पेपर्स आउट' हो जाते ? एडमिनिस्ट्रेशन अच्छा होगा तो ज़्यादा से ज़्यादा प्रिंसिपल यही कर सकता है कि टीचर्स को और मेहनत से पढ़ाने के लिए प्रेरित करे या आदेश दे - और यही बात दूसरे शब्दों में श्रीवास्तवजी ने कही थी। आपकी और उनकी बात में अन्तर कहाँ रहा ?"
रस्तोगी का पलड़ा भारी पड़ते देख गुप्ताजी फ़ौरन एडमिनिस्ट्रेशन के लाभ बताने लगे; बोले, “इससे विद्यार्थियों को एक नैतिक बल मिलता है, उनमें अध्ययन की भावना जाग्रत होती है, केवल विज्ञप्तियाँ और आदेश जारी करना ही प्रशासन नहीं है। उसका क्षेत्र बड़ा व्यापक है।”
रस्तोगी उनकी बातों को 'तर्क के लिए तर्क' कहता हुआ जोर देकर बोला, “आप क्यों नहीं मान लेते कि इस साल बोर्ड की नीति ही बदली हुई थी; उन्होंने इम्पॉर्टेंट (महत्त्वपूर्ण) प्रश्नों की बजाय साधारण प्रश्नों पर ज़ोर दिया था ताकि विद्यार्थियों की वास्तविक योग्यता का पता चल सके।
संक्षेप में रस्तोगी 'अनएक्सपेक्टड पेपर्स' को रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण बता रहा था और गुप्ताजी तत्कालीन प्रिंसिपल के शिथिल एडमिनिस्ट्रेशन को । और दोनों अपनी-अपनी धारणाओं पर दृढ़ एक-दूसरे से बुरी तरह उलझे थे ।
जब काफ़ी देर तक चलती हुई बहस ऊपर उठकर अनिर्णीत ही नीचे आने लगी तो जयप्रकाश अपनी ही ख़ामोशी से अकुला उठा। अपने दोनों हाथ दो विपरीत दिशाओं में फैलाते हुए बोला, “आप दोनों कुछ भी कहिए, पर मेरा तो निश्चित मत है कि रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण कॉलेज की कृषि योजना है।”
जयप्रकाश की आवाज़ में आत्मविश्वास था । वह निर्णयात्मक लहजे में बोला, “देखिए न, फ़ेल होनेवाले लड़कों में पिचासी प्रतिशत गाँव के वे लड़के हैं जो कॉलेज की कृषि-योजना में काम करते थे। ज़रा सोचिए, अगर उनका वक़्त इतनी बेरहमी से बरबाद न किया गया होता तो क्या वे फ़ेल हो सकते थे ?”
रामप्रकाश गुप्ता ने जयप्रकाश का आवेश लक्षित किया और साथ ही एक भावी आशंका से उनकी छाती धड़क उठी। बावजूद सारी बातों के वे जयप्रकाश को पसन्द करते थे । उसकी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का लोहा मानते थे । वह अक्सर कहा करते थे कि बात करना कोई जयप्रकाश से सीखे। सारी बातें कह जाएगा मगर शिकायत लायक़ पकड़ की कोई बात नहीं छोड़ेगा । शब्दों का नपा - तुला प्रयोग और संयत तथा सुलझी हुई बातें - जयप्रकाश की अपनी विशेषताएँ थीं। और इन्हीं के कारण कोशिश करने पर भी गत वर्ष प्रिंसिपल को उसका कहा हुआ एक ऐसा वाक्य पकड़ में नहीं आया था जिससे यह सिद्ध होता कि उसने मैनेजिंग कमेटी का भी विरोध किया है और उसकी नौकरी जाते-जाते रह गई थी। मगर आज उसी जयप्रकाश को क्या हो गया है जो इतने खुले - खुले शब्दों में कृषि-योजना का विरोध कर रहा है।

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